Natasha

Add To collaction

तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

और अब रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी और सुअर ज्यों का त्यों कचरे के बीचोबीच अलमस्त सा घूम रहा था। फ़र्श पर ख़ून के धब्बे पड़ गये थे, और सुअर की तोंद पर दो एक जगह खरोचों के से निशान नज़र आ रहे थे और उसकी अपनी टाँगों पर सुअर की थूकनी के जख़्म थे और बस। सुअर पहले की ही भाँति जीता जागता कोठरी में मौजूद था जबकि नत्थू की साँसफूल रही थी, और बदन पसीने से तर हो रहा था, और कहीं इस झंझट में से निकल पाने का रास्ता नजर नहीं आ रहा था।

दूर शेखों के बाग की घड़ी ने दो बजाये। नत्थू घबराकर उठ खड़ा हुआ। उसकी नज़र फिर सुअर पर गयी। सुअर ने कचरे के टुकड़ों के बीच खड़े खड़े फिर से पेशाब कर दी थी, और झींकता हुआ कमरे के बीच में से हटकर दायें हाथ की दीवार के साथ साथ चलने लगा था। दीये की लौ फिर से झपकने लगी थी, और किसी दुःस्वप्न की तरह साये बार बार दीवारों पर डोलने लगे थे। स्थिति में तनिक भी अन्तर नहीं आया था। सुअर पहले की तरह सिर नीचा किये, थूथने से कभी कचरे के टुकड़े को सूँघने के लिए रुक जाता, कभी दीवार के साथ साथ चलने लगता और कभी किकियाकर दीवार के साथ साथ भागने लगता। पहले की ही तरह उसकी पतली-सी दुम किसी पतले, लम्हे कीड़े की तरह छल्ले बनाती खुलती जा रही थी।

‘‘ऐसे नहीं चलेगा।’’ नत्थू ने दाँत पीसकर कहा, ‘‘यह मेरे बस का रोग नहीं है। यह सुअर आज मुझे ले-दे जायेगा।’’
उसका मन हुआ एक बार फिर सुअर की टाँगे पीछे से खींचकर उसे उलटा गिराने की कोशिश कर देखे। बायें हाथ में छुरे को ऊँचा उठाये, वह धीरे धीरे कदम बढ़ाता हुआ कोठरी के बीचोबीच चला आया। सुअर दायें हाथ की दीवार के सिरे तक पहुँचकर बायीं ओर दीवार के साथ साथ चलने लगा था। नत्थू को अपनी ओर बढ़ते देखकर भागने की बजाय वह मुड़कर नत्थू की ओर आने लगा। एक बार सुअर गुर्राया भी जैसे वह नत्थू पर झपटने जा रहा हो। नत्थू एक एक कदम पीछे की ओर उठाने लगा। उसकी आँखें अभी भी सुअर की थूथनी पर लगी थीं। अब सुअर उसके ऐन सामने था, उसी की ओर बढ़ रहा था। इस स्थिति में उसकी पिछली टाँग को पकड़कर पीछे की ओर खींचना और उसे पीठ के बल गिरा पाना असम्भव हो गया था। सुअर की छोटी-छोटी लाल आँखों में खुमार छाया था। न जाने क्या कर बैठे। पर नत्थू बदहवास हो रहा था। दो बज चुके थे, और जो काम पिछली शाम से अब तक नहीं हो पाया वह अब पौ फटने से पहले कैसे हो पायेगा। किसी वक्त भी जमादार का छकड़ा आ सकता है और जो काम न हुआ तो मुराद अली का क्या भरोसा, दोस्त से दुश्मन बन जाये, खालें दिलवाना बन्द कर दे, कोठरी में से उठवा दे, किसी से पिटवा दे, परेशान करे। नत्थू के हाथ-पैर फूलने लगे। वह मन ही मन जानता था कि सुअर पिछले पाँव से पकड़ने पर सुअर काट खायेगा। या उछलेगा और हाथ छुड़ा लेगा।

सहसा नत्थू भन्ना उठा। बिना किसी स्पष्ट कारण के जैसे उसके तन-बदन में आग लग गयी। ‘या मैं नहीं रहूँगा, या यह नहीं रहेगा’ उसने कहा और झट से लौटकर आले के फ़र्श पर रखी पत्थर की सिल उठा ली। सिल उठाकर वह सीधा कोठरी के बीचोबीच पहुँच गया। सिल को दोनों हाथों से सिर के ऊपर उठाये वह क्षण भर के लिए ठिठका रहा। सुअर की थूथनी अभी भी अगले पैरों पर थी और वह खरबूजे के छिलके को सूँघ रहा था। उसकी लाल-लाल आँखें मिचमिचा रही थीं। पीठ के पीछे उसकी नन्हीं सी पूँछ बराबर हिल रही थी। अगर यह हिले डुले नहीं और सिल सीधी उसके शरीर पर जा पड़े तो कहीं पर तो वह वार करेगी, और कोई न कोई अंग तो सुअर का टूटकर रहेगा ही। अगर एक टाँग ही टूट जाये तो वह भी गनीमत है, उसका चलना पहले से कठिन हो जायेगा।

फिर दोनों हाथ तौलकर नत्थू ने सिल को सुअर पर दे मारा। आले में रखे दीये की लौ थरथरायी और दीवारों पर साये डोल गये। सिल सुअर के लगी थी लेकिन नत्थू ठीक तरह से नहीं जानता था कि कहाँ लगी है। सुअर ज़ोर से किकियाया और सिल खटाक से फर्श पर जा गिरी। नत्थू सिर फेंकते ही पीछे हट गया, और सुअर की ओर घूर-घूरकर देखने लगा। नत्थू को देखकर आश्चर्य हुआ, सुअर की अधमुँदी आँखें मिचमिचा रही थीं और उसकी थूथनी अभी भी अगली टाँगों पर टिकी थी।
सहसा सुअर गुर्राया और पिछली दीवार से हटकर कोठरी के बीचोबीच आने लगा। वह दायें-बायें झूल रहा था। नत्थू एक ओर को, आँगन में खुलने वाले दरवाज़े की ओर सरककर खड़ा हो गया। दीये की अस्थिर रोशनी में सुअर एक काले पुंज की तरह आगे बढ़ता आ रहा था। सिल उसके माथे पर पड़ी थी जिससे वह शायद चकरा गया था और उसे ठीक तरह से दिखायी नहीं दे रहा था। नत्थू डर गया। सुअर ज़रूर उसकी ओर बढ़ता आ रहा है और वह उसे ज़रूर काट खायेगा। सिल का उस पर कोई असर हुआ नहीं जान पड़ता था।
नत्थू ने झट से दरवाज़ा खोला और कोठरी के बाहर हो गया।

‘किस मुसीबत में जान फँस गयी हैं।’ वह बुदबुदाया और आँगन में आकर मुँडेर के पास खड़ा हो गया। बाहर पहुँचकर स्वच्छ बहती और हवा में उसे राहत मिली। कोठरी की घुटन और बदबू में वह परेशान हो उठा था। पसीने से तर उसके शरीर को हवा के हल्के से स्पर्श से असीम आनन्द का अनुभव हुआ। क्षणभर के लिए उसे लगा जैसे वह फिर से जी उठा है, उसकी शिथिल मरी हुई देह में फिर से जान आ गयी है। ‘मुझे क्या लेना इस काम से सलोतरी को सुअर नहीं मिलता तो न मिले, मेरी बला से, मैं कल मुराद अली के सामने पाँच का नोट पटक दूँगा और हाथ जोड़ दूँगा। यह मेरे बस का नहीं है हुजूर मैं यह काम नहीं कर सकता। मेरा क्या बिगाड़ लेगा। दो दिन मुँह बनाये रखेगा, मैं घुटनों पर हाथ रखकर उसे मना लूँगा।’’

मुँडेर के पीछे वह ठिठका खड़ा रहा। चाँद निकल आया था और चारों और छिटकी चाँदनी में उसे आस-पास का सारा इलाका पराया-पराया और रहस्य पूर्ण सा लग रहा था। सामने से गुजरने वाली बैलगाड़ियों की कच्ची सड़क इस वक्त सूनी पड़ी थी। मूक और शान्त। दिन भर उस पर उत्तर के गाँव से आनेवाली बैलगाड़ियों की खटर-पटर और बैलों के गले में बँधी घण्टियों की टुन टुन सुनायी देती रहती थी। उनके पहियों से सड़क पर गहरी लीकें बन गयी थीं और मिट्टी पिस–पिसकर इतनी बारीक हो गयी थी कि इस पर पैर रखते ही पैर घुटनों तक मिट्टी में धँस जाता था। सड़क के पार तीखी ढलान पर जो नीचे मैदान में उतर गयी थी, छोटी छोटी झाड़ियाँ और बेरों के पेड़ और कँटीली ‘झोर के झुरमुट धूल से अटे थे और चाँदनी रात में धुले-धुले से लग रहे थे।

   0
0 Comments